रावी नदी में नारियल और मिंजर विसर्जन के साथ ऐतिहासिक मेला संपन्न
चम्बा। ऐतिहासिक मिंजर मेला रविवार को रावी नदी में मिंजर विसर्जन के साथ संपन्न हो गया। इससे पहले अखण्ड चण्डी महल से एक शोभायात्रा निकाली गई। इसकी अगुवाई चम्बा के विधायक पवन नैयर ने की। शोभायात्रा अखंड चंडी परिसर से शुरू हुई और बाजार से होते हुए रावी नदी के किनारे मंजरी गार्डन पहुंची।
मंजरी गार्डन में कुंजड़ी मल्हार गायन हुआ। इसके बाद पारंपरिक रस्मों के तहत पूजा-अर्चना की गई। मिंजर को एक नारियल से बांधकर रावी नदी में विसर्जित किया गया। कोरोना वायरस संक्रमण से एहतियातन इस दौरान बाजार बंद रहा। इसके लिए प्रशासन ने पहले ही आदेश जारी कर दिए थे। शोभायात्रा निर्धारित कॉविड प्रोटोकॉल का पालन करते हुए शारीरिक दूरी, और मास्क व सैनिटाइजर के उपयोग के साथ पूरी हुई।
इस मौके पर उपायुक्त डीसी राणा, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक एस आरूल कुमार, नगर परिषद अध्यक्ष नीलम नैयर, अध्यक्ष जिला परिषद नीलम कुमारी, उपाध्यक्ष नगर परिषद सीमा कश्यप, अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक विनोद धीमान, सहायक आयुक्त रामप्रसाद शर्मा, एसडीएम नवीन तंवर, जिला भाजपा अध्यक्ष जसवीर नागपाल और नगर परिषद के पार्षद व स्थानीय गणमान्य लोग शामिल हुए।
मिंजर मेला का इतिहास
शाहजहां के शासनकाल के दौरान सूर्यवंशी राजा पृथ्वी सिंह, रघुवीर जी को चम्बा लाए थे। शाहजहां ने मिर्जा साफी बेग को रघुवीर जी के साथ राजदूत के रूप में भेजा था। मिर्जा साहब जरी गोटे के काम में माहिर थे। चम्बा पहुंचने पर उन्होंने जरी की मिंजर बनाकर रघुवीर जी, लक्ष्मीनारायण भगवान और राजा पृथ्वी सिंह को भेंट की थी। तबसे मिंजर मेले का आगाज मिर्जा साहब के परिवार का वरिष्ठ सदस्य रघुवीर जी को मिंजर भेंट करके करता है। इससे चम्बा के साथ-साथ संपूर्ण भारत की धर्म निरपेक्षता की झलक मिलती है। सदियों पुरानी परंपरा के अनुसार आज भी मिर्जा परिवार के सदस्यों द्वारा मिंजर तैयार कर भगवान रघुवीर को अर्पित की जाती है।
जीवित हैं परंपराएं
बदलते समय के साथ मिंजर मेले का स्वरूप बेशक बदल गया है। कुछ परंपराएं आज भी काम हैं। मिंजर मेले में लोग खास तरह के वस्त्र पहन कर पहुंचते हैं। उसमें जरी गोटे की मिंजर विशेष होती है। आज भी सबसे पहली मिंजर मिर्जा परिवार भगवान रघुवीर जी को अर्पित करता है।
कब आया बदलाव
आजादी के बाद मिंजर विसर्जन के दौरान सिर्फ रघुनाथ जी की पालकी ही मिंजर यात्रा के साथ चलती थी। बाद में प्रशासन ने स्थानीय देवी-देवताओं को भी इस यात्रा में शामिल करने की इजाजत दी। मिंजर की शोभायात्रा मेले के अंतिम दिन पूरे राजशाही अंदाज में निकाली जाती है और मंजरी गार्डन में मिंजर को प्रवाहित किया जाता है।
भैंसे की बलि दी जाती थी
1943 तक मिंजर मेले में भैंसे की बलि देने की प्रथा थी। इसके अनुसार जीवित भैंसे को नदी में बहा दिया जाता था। यह आने वाले साल में राज्य के भविष्य को दर्शाता था। अगर पानी का बहाव भैंसे को साथ ले जाता था और वह डूबता नहीं था तो उसे अच्छा माना जाता था। यह माना जाता था कि बलि स्वीकार हुई। अगर भैंसा बच जाता और नदी के दूसरे किनारे चला जाए तो उसे भी अच्छा माना जाता था कि दुर्भाग्य दूसरी ओर चला गया है। अगर भैंसा उसी तरफ वापस आ जाता था तो उसे बुरा माना जाता था। अब भैंसे की जगह सांकेतिक रूप से नारियल की बलि दी जाती है। विभाजन के बाद पाकिस्तान गए लोग भी रावी नदी के किनारे मिंजर प्रवाहित करते हैं और कुंजड़ी-मल्हार गाते हैं। 1948 से रघुवीर जी रथयात्रा की अगुवाई करते हैं।
यह भी रोचक
चम्बा जिला के बुद्धिजीवियों की मानें तो 19वीं सदी में एक भैंसे ने रावी नदी को पार कर लिया। करीब 17 साल तक यह भैंसा चम्बा के राजमहल में शाही मेहमान के रूप में रहा। राजा ने उसकी सेवा के लिए सेवादारों की व्यवस्था भी कर रखी थी। उसने लगातार 17 साल तक रावी को पार किया और बाद में राजमहल में उसकी मौत हो गई थी।
फेसबुक पर हमसे जुड़ने के लिए यहांक्लिक करें। साथ ही और भी Hindi News (हिंदी समाचार) के अपडेट पाने के लिए हमेंगूगल न्यूज पर फॉलो करें।